कहानी
अनुवादक : मुकेश कुमार मिश्र
नेपाल प्रज्ञा-प्रतिष्ठानको अनुवादप्रधान पत्रिका "रूपान्तरण" पूर्णाङ्क - ६ बाट साभार
मोबाइल फोन से अभी–अभी मिली हुई खबर मेरे लिए कोई खास अप्रत्याशित नहीं थी । सरकार द्वारा बनाई जा रही सुकुमवासी बस्ती में डोजर चलवाने की योजना की जानकारी मुझे आधिकारिक स्थान से ही मिल चुकी थी ।
“यह कदम हमारी पार्टी के लिए अत्यंत घातक होगा ।”— सूचना मिलते ही मैंने प्रतिक्रिया दी थी ।
“अब यह पार्टी हमारी नहीं रही । जनता की नहीं रही ।”— पार्टी के नेताओं को चुनौती देते हुए कहा था मैंने ।
जिÞम्मेदार कॉमरेड भी मेरी बातें प्रतिक्रियाविहीन होकर सुनते रहे ।
दो दिन पहले तक मैंने कार्की चाचा को ‘यह तो हो ही नहीं सकता’ कहकर पिÞmर से विश्वास दिलाने की कोशिश की थी । लेकिन अपनी बात पर मैं स्वयं भी विश्वस्त नहीं था ।
मोबाइल की घंटी लगातार बजने लगी । रजमान गुर्मछान, सरला कार्की, हरिदेव चौधरी, सुवास आले समेत कई दोस्तों के फोन से आई घंटी बजती की बजती ही रही । लगातार घंटी बजने पर मैंने मोबाइल को साइलेंट कर लिया ।
रेडियो खोला । एफएम स्टेशनों से ‘वाग्मती के सुकुमवासी बस्ती को सरकार डोजर लगाकर हटा रही है’ समाचार आ रहे थे ।
पिÞmर मैं बिस्तर पर जाकर लेट गया । बस लेटना ही तो था । कल तक नरम लगने वाला बिस्तर भी काँटे की तरह चुभता हुआ–सा लगा । बदन पसीने से लथपथ–सा हो रहा था । पिÞmर उठा । मोबाइल के स्क्रिन को देखा । सुकुमवासी टोल के कॉमरेडों के आए कॉल्स की लंबी लिस्ट थी ।
पार्टी के शांति प्रक्रिया में आने के बाद सुकुमवासियों का व्यवस्थापन बड़ी चुनौती के रूप में हमारे सामने खड़ा हुआ था । देश भर में ही यह समस्या थी । काठमांडू के भीतर के सुकुमवासियों का व्यवस्थापन करने की जिÞम्मेदारी के साथ पार्टी ने मेरे नेतृत्व में एक टीम बना दी । हमारे लिए यह काम कम चुनौती भरा नहीं था । पार्टी में संगठित हुए कुछ सुकुमवासी कॉमरेडों के सहयोग में हम ने वास्तविक सुकुमवासियों की लिस्ट बनाना शुरू किया । सुकुमवासियों की अवस्था बड़ी विकराल थी । काठमांडू की बहुत सारी जÞमीनों पर सुकुमवासी के ही नाम पर अमीर लोग कब्जÞा जमाकर बैठे हुए थे । उच्च ओहदे के सरकारी मुलाजिÞम ही नहीं, बल्कि उच्च राजनीतिक प्रभाव के बल पर सरकारी जÞमीन हड़पकर बसे हुए गैर सुकुमवासियों की तादाद भी बड़ी थी ।
पार्टी द्वारा हमें सौंपी गई जिÞम्मेदारी में सहयोग देने वाले साथी भी बहुत थे । वास्तविक सुकुमवासियों के समूह में प्रवेश करने के बाद लगा जैसे हम एक अलग ही संसार में आ गए हैं ।
सुकुमवासी टोल के भीतर ही सुकुमवासी और गैर सुकुमवासियों के बीच एक ध्रुवीकरण था । वास्तविक सुकुमवासियों का साथ हम अच्छी तरह ही दे रहे थे । उन्हें भी हमारे ऊपर यकीन और भरोसा था । सुकुमवासी टोल के गैर सुकुमवासियाें के हमारे विरुद्ध विविध षड्यंत्र करने की सूचना हमें मिलने लगी थी । वास्तविक सुकुमवासियों की एकता के आगे गैर सुकुमवासी कमजÞोर पड़ रहे थे ।
लोगों के सुकुमवासी जीवन में रूपांतरित होने के पीछे बहुत सारे कारण होते थे । अच्छी तरह पेट भर सकने वाले भी पारिवारिक दुर्घटना के कारण यहाँ आ जाते थे । वाग्मती किनार के सुकुमवासियाें के सहकार्य के कारण देश भर बिखरे हुए सुकुमवासियों के साथ संपर्क बढ़ता गया । एक तरह से कहा जाए तो वास्तविक सुकुमवासियों का नेतृत्व लेने में हमारी पार्टी सफल थी । इस बात को लेकर ही हमें गर्व था ।
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जब मैं वाग्मती पुल पर पहुँचा तो पुलिस और सुकुमवासियों के बीच झड़प हो रही थी । पुलिस की ज्Þयादती सीमा पार कर रही थी । दूर से ही देखा— कॉमरेड सरला का छोटा–सा बेटा बच्चों का एक समूह बनाकर डोजर पर पत्थर मार रहा था । पुलिस वाले क्या बच्चा, क्या बुजुर्ग, सब पर लाठी बरसा रहे थे और क्रूरतापूर्वक झोपड़ियाें के सामानों को वाग्मती नदी में फेंक रहे थे ।
एक ही निमेष में देखते–ही–देखते लोगों की बड़ी संख्या बेघर हो गई । मेरे साथ अंतर्संबंध वाले सभी कॉमरेड बेघर हो चुके थे । भीतर से ही मन जुड़े हुए लोगों के ऊपर पड़ी चोट से कितना दर्द होता है, इसका अनुभव मैंने आज पहली बार किया । अपनी ही पार्टी सरकार में है । इस विषय में उनकी मेरे साथ होने वाली बातचीत से पीड़ा और बढ़ी हुई महसूस होती है ।
“मैं आप लोगों के साथ हूँ और रहूँगा ।” इतना मात्र उत्तर देकर उनकी गहरी पीड़ा पर मरहम लगाने की कोशिश कर रहा हूँ ।
समर्थ लोगों ने थोड़ा–थोड़ा करके अपने सामान उठाए, असमर्थ लोग वह भी नहीं कर सके । पार्टी और सरकार ने भयंकर गलत फैसला लिया था । इस वारदात से जनता और हमारी पार्टी की दूरी कापÞmी बढ़ गई है ।
“वास्तविक सुकुमवासियों के लिए वैकल्पिक व्यवस्था करके ही वाग्मती किनारे के सुकुमवासियों को हटाना जायज होगा ।” पार्टी कमिटी की तरपÞm से हमने बारंबार पार्टी नेतृत्व और सरकार से आग्रह किया था ।
उजाड़ दी गई झोपड़ी में छूटा–फूटा कुछ मिलने की आशा में अपने बेटे को लेकर गई हुई सरला दुपट्टे से आँसू पोंछती हुई वाग्मती पुल की तरपÞm आ रही थीं । इसी तरह अपने–अपने बच्चों के साथ मोटरी–गठरी थामे आ रहे थे— कार्की चाचा, रजमान गुर्मछान, हरिदेव चौधरी, सुवास आले लगायत कॉमरेड लोग । इन साथियों को किस मुँह से क्या बोलूँ, अब दूसरे पहाड़ से दबा हुआ–सा महसूस होने लगा ।
पुल ऊपर के लोगों को पुलिस तितर–वितर कर रही थी । मैं कॉमरेडों से मुलाकात कर पुल के उत्तरी हिस्से की तरपÞm बढ़ गया । मैं उनकी पीड़ा को सहलाने के लिए उपयुक्त शब्द खोज रहा था । इतना ही नहीं, मैं खुद भी निराश था । ऐसा लग रहा था मानो मेरे आगे मुश्किलों का पहाड़ खड़ा हो ।
कैसा सपना सँजोए चला था । अपनी यात्रा पर कितना विश्वास था । लेकिन अपने ही सामने चकनाचूर होकर टूट रहे शीशे के समान सपना टूट रहा था ।
मुझे पता है सरला के रहने का अब कोई आसरा नहीं है । रामेछाप में ही पली बढ़ी हुई, माँ–बाप का चेहरा तक न देख पाई अनाथ । छोटी उम्र में ही चाचा–चाची ने सौतन वाले घर में अधेड़ पति का साथ लगा दिया । विवाह करके गई हुई ससुराल किसी यातनागृह से कम न थी । कालीन के कारखाने में काम करेंगे कहकर कुछ साल पहले उनका पति काठमांडू लेकर आ गया । साथ में दो छोटे–छोटे बच्चे थे । एक दिन पहली सुबह ही उनका पति उन्हें छोड़कर लापता हो गया । उन्होंने कुछ दिनों तक अपनी क्षमता के मुताबिक अपने पति को ढूँढ़ने की कोशिश की । बाद में वह समझ पाईं कि खुद से दूर करने के लिए ही उनके पति ने ये सब नाटक किया था ।
कुछ दिनों तक तो काठमांडू की सड़कों पर, गलियों में वह भीख माँगती पिÞmरीं । एक दिन भीख माँगने दौरान गाँव की एक दीदी से उनकी मुलाकात हुई, जिन्होंने उन्हेें अपनी ही तरह पत्थर तोड़कर गुजÞारा चलाने की सलाह दी । माँगकर खाने की इच्छा उन्हें भी बिल्कुल न थी । सो वह भी दीदी के पीछे–पीछे बल्खु नदी के किनारे काम की तलाश में गईं ।
उसी साल बड़ा लड़का नदी में डूबकर मर गया । उसके बाद उन्हेें वहाँ रहना अच्छा नहीं लगा । पर करतीं क्या ? मजबूरी से बँधी हुई जिÞंदगी के उनकी मजर्Þी से चलने का सवाल ही नहीं था । करीब दो साल बल्खु नदी के किनारे पत्थर तोड़ने के दौरान उन्होंने कहीं से सुना कि वाग्मती के किनार में झोपड़ी बनाकर रहा जा सकता है ।
पत्थर फोड़ने वाले साथियाें के पीछे लगकर सरला वाग्मती किनार वाली सुकुमवासी बस्ती में आई थीं ।
कॉमरेड सरला बेटे का हाथ पकड़े मेरे पास आईं और एकटक मुझे देखती रहीं । सरला और मैंने थापाथली पुल पर खड़े होकर पिÞmर से एक बार सुकुमवासी बस्ती की ओर देखा । उधर देखकर शायद उन्होंने अपने पुराने घाव को कुरेदा होगा । पपड़ी पड़ चुके घाव से वापस खून बहने लगा होगा । उनके चेहरे को पढ़कर ऐसा ही कुछ आभास हो रहा था ।
बेआसरे कॉमरेड कुछ नजÞदीक के और कुछ दूर के रिश्तेदारों के यहाँ जाने की बात कर रहे थे । मोटरी लादे हुए कार्की चाचा ऐसे मुँह लटकाए मुझे देख रहे थे, मानो बस अब रोने ही वाले हैं ।
“सरला कॉमरेड, चलिए मेरे ही यहाँ चलते हैं ।”— सरला को आश्रय लेने की यहाँ कोई जगह नहीं है, यह मुझे पता था ।
मैंने सरला की ओर देखा । वाग्मती के पानी में उनके आँसू की बूँदें गिरकर कहीं खो गई थीं ।
“मैं कभी भी न रोने वाले इंसानों में से हूँ कॉमरेड, पर आज... !”— हथेली से आँसू पोंछती हुई बोलीं वह ।
सरला की खुशी और दुख दोनों स्थितियों को मैंने नजÞदीक से देखा था । जब पहली बार वह पार्टी के संपर्क में आई थीं, तब बेहद खुश थीं ।
“ऐसा लग रहा है, आज से मुझे नई जिÞंदगी मिली है ।”— पार्टी सदस्यता प्राप्त होने के दिन उत्साहित होते हुए कहा था उन्होंने ।
वही इंसान इतनी छोटी अवधि में आज कह रही है— “कॉमरेड, अब मैं सच में हारी हुई महसूस कर रही हूँ ।”
मैं निरुत्तर उसकी बातें सुनता हुआ रास्ते पर चल रहा था और खुद चल रहे रास्ते से खुद को ही अविश्वास पैदा हो रहा था ।
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सरला और उनका सात साल का बेटा शिवहरि रसोई घर के रूप में प्रयोग किए जा रहे बगल के कमरे में सोए थे । बीच में प्लाइवुड का छेका लगा हुआ था । इधर के कमरे में हमारा परिवार सोया हुआ है ।
“आप कह रही थीं कि अब हमें पहले की तरह अन्याय नहीं सहना पड़ेगा !” शिवहरि के अपनी माँ से पूछे हुए शब्द रात के सन्नाटे को चीरते हुए हम तक आ पहुँचे । मेरी पत्नी सरिता उस आवाजÞ को सुनने के लिए मुझे टोक रही थी ।
“मैं भी सोया नहीं हूँ ।” मैंने धीरे से उसके कान में कहा ।
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अनुवादक : मुकेश कुमार मिश्र
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